विधायक के गृह निवास के समीप सूख रहा गांव, लेकिन ‘माननीय ने नहीं ली कभी सुध!
1 min read
AMIR PATHAN
सूरजपुर (छत्तीसगढ़)। “जल ही जीवन है” — ये बात किताबों, सरकारी विज्ञापनों और भाषणों में जितनी मीठी लगती है, ज़मीनी हकीकत में उतनी ही कड़वी हो चुकी है। जिले से महज़ 10 किलोमीटर दूर कोट पंचायत के डूमरभवना गांव की हालत ऐसी है कि पानी की एक-एक बूंद के लिए इंसान को इंसान से लड़ना पड़ रहा है। हैरानी की बात ये है कि ये गांव सूरजपुर विधायक जी के खुद के इलाके में आता है। यानी जनाब के घर से ज्यादा दूर नहीं है ये प्यासा गांव… लेकिन साहब को न खबर है, न फुर्सत है, और न कोई सरोकार।

सुबह की पहली किरण, और पानी के लिए हाहाकार!
सुबह के पांच बजते ही डूमरभवना की गली में एक अजीब सी हलचल शुरू हो जाती है। महिलाएं, हाथों में खाली बाल्टी और पीठ पर मटकी रखे, जंगल-पहाड़ की ओर निकल पड़ती हैं। किसी को ढोढ़ी में थोड़ा पानी दिखा, कोई नाले में बाल्टी डुबो रहा है। ये लोग नहाने, धोने या कपड़े साफ करने के लिए नहीं, बल्कि पीने के पानी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। गांव में दो हैंडपंप ज़रूर लगे हैं, लेकिन एक बूंद पानी नहीं निकलता। कोई चक्कर लगाता है तीन किलोमीटर दूर के कुएं का, कोई पांच किलोमीटर दूर एक गंदे पोखर से पानी ढोकर लाता है।

“पानी नहीं तो जान नहीं” — लेकिन अधिकारी हैं कि कुंभकर्णी नींद में!
डूमरभवना के ग्रामीणों ने हाथ-पैर जोड़कर, ज्ञापन देकर, धरना देकर, पंचायत से लेकर जिला प्रशासन तक हर दरवाजा खटखटाया है। लेकिन नतीजा सिफर। न तो पीएचई विभाग ने कोई सुध ली, न ही पंचायत से लेकर ब्लॉक स्तर तक के जिम्मेदारों ने कोई जवाब दिया। जब हमारी टीम सूरजपुर जिले के पीएचई कार्यालय पहुंची, तो वहां अफसर तो गायब मिले, लेकिन दीवारों पर पानी बचाओ-पानी पिलाओ जैसे बड़े-बड़े स्लोगन चिपके हुए थे। सवाल ये है कि इन स्लोगनों से प्यास बुझती है क्या?

जिला प्रशासन – “आपके माध्यम से जानकारी मिली है।”
जब मामला जिले के जिला प्रशासन तक पहुंचा, तो उन्होंने बड़ी सहजता से कहा — “हमें आपके माध्यम से जानकारी मिली है, टीम भेजकर देखवाते हैं।” मतलब साफ है — जब तक मीडिया नहीं पहुंचता, तब तक कोई अफसर झांकने भी नहीं आता। जनता चाहे प्यास से बेहाल हो या बीमार, प्रशासन के कान पर जूं तक नहीं रेंगती।
सबसे बड़ा सवाल — विधायक जी, आप किस काम के हैं?
अब आइए इस खबर के सबसे ज़रूरी किरदार पर — सूरजपुर विधायक महोदय। जनाब ने पिछले चुनाव में डूमरभवना आकर बड़े-बड़े वादे किए थे। मंच पर चढ़कर कहा था, “हमारी सरकार आई तो पानी की टंकी से लेकर पाइप लाइन तक सब कुछ देंगे।” लेकिन अब तक गांव में न टंकी आई, न पाइप आई, न पानी! विधायक जी के खुद के गांव से लगे इस डूमरभवना की सुध तक लेने वो एक बार भी नहीं पहुंचे। शायद वोट लेकर वो भी भूल गए कि लोग इंसान हैं, वोटिंग मशीन नहीं!
“चुनाव में आते हैं, फिर पांच साल तक गायब रहते हैं…”
गांव की बुजुर्ग महिला गीता बाई बताती हैं, “पिछली बार नेताजी आए थे, बोले थे सब कर देंगे। अब पांच साल हो गए, उनका चेहरा भी नहीं देखा। हम तो प्यास से मर रहे हैं बेटा, लेकिन नेताजी को हम याद भी नहीं।” और ये बात सिर्फ गीता बाई की नहीं, गांव के हर बुजुर्ग, हर महिला, हर नौजवान के दिल में चुभ रही है।
क्या डूमरभवना सिर्फ वोट बैंक है?
चुनाव के समय जब वोट चाहिए होते हैं, तब नेता जी चप्पल घिस-घिस कर हर गली में जाते हैं। लेकिन जब काम का वक्त आता है, तो वो विधानसभा की कुर्सी से उठने को तैयार नहीं। क्या डूमरभवना के लोग सिर्फ वोट देने के लिए हैं? क्या इन्हें साफ पानी पीने का अधिकार नहीं है? क्या संविधान में इनके लिए कोई जगह नहीं?
अब सब्र जवाब दे रहा है… अगली बार पानी नहीं, जवाब चाहिए!
गर्मी अपने चरम पर है। बच्चों के शरीर में पानी की कमी से बीमारी पनप रही है, महिलाएं रोज 5-5 किलोमीटर दूर से पानी ला रही हैं, लेकिन जिला प्रशासन और विधायक महोदय को जैसे कोई मतलब ही नहीं। अब गांव वाले कह रहे हैं, “इस बार चुनाव आएगा तो नेताजी को खाली बाल्टी थमाएंगे — और कहेंगे पहले पानी दो, फिर वोट मिलेगा।”
अंत में एक सवाल —
क्या सूरजपुर के डूमरभवना जैसे गांवों के लोग किसी जनप्रतिनिधि के लिए इतने भी महत्वहीन हो गए हैं कि उन्हें पीने का पानी भी नसीब न हो? या फिर ये सारा सिस्टम सिर्फ वादों की चक्की है, जो चुनावी समय में घूमती है और फिर सालों तक जंग खाकर बंद हो जाती है?
इस बार डूमरभवना पूछ रहा है — ‘विधायक जी, आप किसलिए चुने गए थे?’